खुशियों भर जमाना....
आजकल के भागते युग में अक्सर लोग वक्त के ठहराव को ढूंढते है, क्योंकि उसे तहेदिल से जब तक महसूस नहीं कर लेते, वह लम्हा जिया हुआ नहीं लगता। सही भी है, क्योंकि एक-एक धागा सी कर ही कारीगरी का हुनर साधा जा सकता है, या बैठ कर उन अच्छे बुरे वक्त को दिल में फिर टटोला जा सकता है। यादों के कोहरे में से। आजकल इस भागते युग में से क्या निकलेगा, फिर गालों पर बैठी हुई सिलवटों से...?
पर एक बात यह भी है जो इस दौर की सबसे बड़ी खूबसूरत बात है - वह है, व्यस्त रहना और खुश रहना। इस दौर में इतना तनाव है - बढ़ती भीड़, बढ़ता प्रदूषण, बढ़ती दूरियां, एकाकीपन, जिम्मेदारियों से आदमी कम उम्र में ही कई रोग पाल लेता है या बूढ़ा होने लगता है। और तब आदमी को समझ आती है ‘खुशी’ की महत्ता और उसे पाने की तरकीब।
जहां पुराने युग में आदमी एक दर्द को लेकर पूरी जिंदगी गुजार देता था - चाहे वह किसी के लिए इश्क हो, किसी का दिया हुआ धोखा हो, बीमारी हो, मुफलिसी हो या कुछ और। किंतु आज इस बदलते युग की मांग है कि आप खुद को संभाल कर अपना ध्यान अपने व्यस्त रहने में लगाये। खुश रहे व औरो को खुशियां बांटे।
यह भी सच है कि हर व्यक्ति के दुःख का कुछ ना कुछ दुःख का कारण है। जीवन है तो सुख और दुःख दोनों ही होंगे। हां, कहीं ज्यादा, कहीं कम। किंतु आज के युग का व्यक्ति इतना समझ चुका है कि ‘खुशी’ उसके मांगने या उसके इंतजार करते रहने से नहीं मिलती, क्योंकि फिर तो ‘खुशी’ सिर्फ एक घटना होगी और फिर वह चली जायेगी। क्योंकि आपने स्वयं ने ही उसे किसी विषय से जोड़ दिया है। आज के दौर के व्यक्ति ऐसे भी हैं, जो थोड़े में संतुष्ट नहीं है, या अधिक महत्वाकाक्षी है। परंतु यह सच भी है कि एक जीत या हार उनका पूरा जीवन नहीं तय कर देती। वह अपना कर्म करते हैं, लक्ष्य निर्धारित करते हैं व आगे बढ़ते हैं।
शायद इस युग की यह एक विशेष बात है कि लोगों ने क्षणभंगुरता को समझा है - सुख या दु:ख दोनों के क्षणभंगुर हो जाते हैं। ऐसे में व्यक्ति अपने दिमाग को केंद्रित कर अपना कर्म, अपना रुचिपूर्ण कार्य या कुछ सकारात्मक या सृजनात्मक क्रिया में लीन होकर अपना जीवन जीते हैं। ऐसे में व्यक्ति खुशियां ढूंढता नहीं है, बल्कि उसे एक आंतरिक शांति मिलती है, जिस से ‘खुशी’ उसके जीवन की आदत बन जाती है।
यह भी है कि बीते युग में लोग अपना दुःख कह कर बांट लेते जो कि अब भी है। किंतु बीते युग की तरह तिल-तिल कर उसी दुःख को बार-बार पिरोते रहना इस युग को मंजूर नहीं है। क्योंकि इस युग का व्यक्ति यह जानता है कि यह दुःख अब उस इंसान की व्यसनता बन गया है। उसे खुद इसे बार-बार घोल कर पीने की लत लग चुकी है।
ऐसे में इसका इलाज हल ढूंढने में है। और जो हल ना हो तो उसे मंजूर कर, जिंदगी को व्यस्त कर, इस दुःख से ध्यान बटा कर जीने में है। अगर जो व्यक्ति अपने दुखों में इतना दु:खी है, इसका अर्थ है वह बहुत आत्म केंद्रित है। उसे आप से निकल कर दूसरे विषयों पर जाना आवश्यक है। नहीं तो वह इस युग को, इस पीढ़ी को कोसेगा। पर इस पीढ़ी और इस युग के लोग चाहे ईश्वर के करोड़ों चित्रों, बुतों या इबादतों से ना जोड़ पाये पर अपने जीवन को जरूर उस परम ऊर्जा से जोड़ पाते हैं। वही ऊर्जा जो उन्हें प्रेरित कर व्यस्त रखती है और ‘खुशी’ को एक सकारात्मक आदत बना देती है।
पर एक बात यह भी है जो इस दौर की सबसे बड़ी खूबसूरत बात है - वह है, व्यस्त रहना और खुश रहना। इस दौर में इतना तनाव है - बढ़ती भीड़, बढ़ता प्रदूषण, बढ़ती दूरियां, एकाकीपन, जिम्मेदारियों से आदमी कम उम्र में ही कई रोग पाल लेता है या बूढ़ा होने लगता है। और तब आदमी को समझ आती है ‘खुशी’ की महत्ता और उसे पाने की तरकीब।
जहां पुराने युग में आदमी एक दर्द को लेकर पूरी जिंदगी गुजार देता था - चाहे वह किसी के लिए इश्क हो, किसी का दिया हुआ धोखा हो, बीमारी हो, मुफलिसी हो या कुछ और। किंतु आज इस बदलते युग की मांग है कि आप खुद को संभाल कर अपना ध्यान अपने व्यस्त रहने में लगाये। खुश रहे व औरो को खुशियां बांटे।
यह भी सच है कि हर व्यक्ति के दुःख का कुछ ना कुछ दुःख का कारण है। जीवन है तो सुख और दुःख दोनों ही होंगे। हां, कहीं ज्यादा, कहीं कम। किंतु आज के युग का व्यक्ति इतना समझ चुका है कि ‘खुशी’ उसके मांगने या उसके इंतजार करते रहने से नहीं मिलती, क्योंकि फिर तो ‘खुशी’ सिर्फ एक घटना होगी और फिर वह चली जायेगी। क्योंकि आपने स्वयं ने ही उसे किसी विषय से जोड़ दिया है। आज के दौर के व्यक्ति ऐसे भी हैं, जो थोड़े में संतुष्ट नहीं है, या अधिक महत्वाकाक्षी है। परंतु यह सच भी है कि एक जीत या हार उनका पूरा जीवन नहीं तय कर देती। वह अपना कर्म करते हैं, लक्ष्य निर्धारित करते हैं व आगे बढ़ते हैं।
शायद इस युग की यह एक विशेष बात है कि लोगों ने क्षणभंगुरता को समझा है - सुख या दु:ख दोनों के क्षणभंगुर हो जाते हैं। ऐसे में व्यक्ति अपने दिमाग को केंद्रित कर अपना कर्म, अपना रुचिपूर्ण कार्य या कुछ सकारात्मक या सृजनात्मक क्रिया में लीन होकर अपना जीवन जीते हैं। ऐसे में व्यक्ति खुशियां ढूंढता नहीं है, बल्कि उसे एक आंतरिक शांति मिलती है, जिस से ‘खुशी’ उसके जीवन की आदत बन जाती है।
यह भी है कि बीते युग में लोग अपना दुःख कह कर बांट लेते जो कि अब भी है। किंतु बीते युग की तरह तिल-तिल कर उसी दुःख को बार-बार पिरोते रहना इस युग को मंजूर नहीं है। क्योंकि इस युग का व्यक्ति यह जानता है कि यह दुःख अब उस इंसान की व्यसनता बन गया है। उसे खुद इसे बार-बार घोल कर पीने की लत लग चुकी है।
ऐसे में इसका इलाज हल ढूंढने में है। और जो हल ना हो तो उसे मंजूर कर, जिंदगी को व्यस्त कर, इस दुःख से ध्यान बटा कर जीने में है। अगर जो व्यक्ति अपने दुखों में इतना दु:खी है, इसका अर्थ है वह बहुत आत्म केंद्रित है। उसे आप से निकल कर दूसरे विषयों पर जाना आवश्यक है। नहीं तो वह इस युग को, इस पीढ़ी को कोसेगा। पर इस पीढ़ी और इस युग के लोग चाहे ईश्वर के करोड़ों चित्रों, बुतों या इबादतों से ना जोड़ पाये पर अपने जीवन को जरूर उस परम ऊर्जा से जोड़ पाते हैं। वही ऊर्जा जो उन्हें प्रेरित कर व्यस्त रखती है और ‘खुशी’ को एक सकारात्मक आदत बना देती है।
— डाॅ. अंजू दवे